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warli Painting वर्ली चित्रकला


                                   र्ली जनजाति भारत  की अनेक जनजातियों में से एक है ।जो अधिकांशतः महाराष्ट्र के नासिक और धुले छेत्र में और थाणे जिले में धानु तलासिरी तथा गुजरात के तलसाड़ तथा केंद्र प्रशाषित दादर और नागर हवेली और दमन और दिउ में बसे है ।इस जनजाति के अपने ही मत और विश्वास है और अपने ही रीती रिवाज है जो वृहद हिन्दू संस्कृति का ही हिस्सा है          


 
वर्ली शब्द की उत्पत्ति वारल से हुई जिसका यह मतलब है ज़मीन का एक टुकड़ा या खेत।मनायता यह है की सदियों पहले इस समुदाय के लोगो ने जंगली झाड़ियों और कुछ विशाल पेड़ों की शाखाओं को काटने के बाद खेती के लिए जिस जमीन ले हिस्से को सवारा उन्हें ही वारील लोगों की भाषा में वारल  नाम दिया गया  और बाद में यह खीती करने वाला समुदाय वर्ली के नाम से जाना गया ।ऐसा कहा जाता है की यह समुदाय जगह बदलने की खेती करने की तकनीक को अपनाता था जिसे shifting cultivation के नाम से जाना जाता है ।लेकिन बाद में इन्होने पश्चिम घाटी की सयात्री पर्वत श्रंखला की तराई में रहना शुरू कर दिया ।लेकिन आजादी के पूर्व  अंग्रेज़ो को इनका घुमक्कड़पन और शिफ्टिंग कल्टीवेशन की परंपरा रास नै आई और यह समुदाय अक्सर उनके शोषण का शिकार होने लगा ।अंग्रेज़ो से बचने के लिए यह समुदाय वापस जंगलों में चला गया मगर फिर आज़ादी के बाद समय बदला तो वारील समुदाय भी इस बदलाव से अछूता न रहा 
वर्ली जनजाति 

वर्ली जनजाति की चित्रकला

वर्ली जनजाति अपनी अनोखी भित्ति चित्रकला के लिए जनि जाती है ।करीब 10000 साल पहले पाषाणयुगीन मानव द्वारा बनाये गए गुफा भित्ति चित्रों wall painting के सामान इनके चित्र प्रकृति के बहुत करीब है ।वर्ली चित्रकला में वृत्त ,त्रिकोण और चौकोर ज्यामितीय आकारों की रचना करते है गोला या वृत्त सूरज और चाँद का प्रतीक है और  त्रिकोण प्रतीक है पर्वत शृंखला और नोकीले पेड़ का तथा चौक पतीक है धरती का चौक के घेरे को इस जनजाति के लोग बहुत पवित्र मानते है ।जो इनकी हर कला में देखने को मिल जाता है। मुख्यतः दो  प्रकार चौके होती है 1 .देव चौक 2 .लगन चौक देव चौक के केंद्र में पालघाट देवी की प्रतिमा स्थापित की जाती है जो उर्वरता का प्रतिक है ।वर्ली कलाकृतियों और परम्पराओं में देवता बहुत कम है और उन्हें उन आत्माओं के सन्दर्भ में देखा जाता है ।जिन्होंने मानव रूप धारण कर लिया हो । 

                                  सन 1970 के दशक तक यह कला सिर्फ महिलाओ द्वारा ही बनाया जाता था ।1970 के बाद यह पुरुषों द्वारा भी बनाया जाने लगा।श्री जिव्या सोमा महसे भी एक वर्ली चित्रकार है जिन्हे राष्ट्रपति द्वारा पद्म श्री की उपाधी मिली ।ये ऐसे प्रथम वर्ली चित्रकार है जिनके कार्य को प्रथम राष्ट्र सम्मान और विश्व पहचान मिली 

               
   


वर्ली समाज मे तारपा नमक वाद्ययंत्र का  एक विशेष   स्थान है और यह वर्ली समाज  का एक प्रतीक भी है   कोई भी उत्स्व हो तारपा ही गीत संगीत और नृत्य का   केंद्र  होता है वर्ली समुदाय के दृष्टिकोण में तारपा के स्वर   जीवन की निरंतरता का प्रतीक है 
।दीपावली के अवसर  पर तीन दिन तक जश्न मनाया जाता है और यह मौका   प्रकर्ति की उर्वर शक्ति के प्रति उनका आभार प्रदर्शन है ।   वर्ली समुदाय जब ऐसी दैवीय शक्ति के प्रति आभार   प्रकट  करता है तो उसमे तारपा का समावेश आवश्यक   है ।नृत्य का आयोजन खुले प्रांगण में होता है और नृत्य करने वाले तारपा बजने वाले के चारो ओर एक गोलाई में घूमते है । लेकिन वह  गोलाई पूर्ण रूप से तारपा वादक को नही घेरति बल्कि थोड़ा सा स्थान खुला छोड़ते है ।तरपावादक जैसे ही अपनी धुन बदलता है नृत्य का रुख भी बदल जाता है ।नर्तक अपनी पीठ कभी भी तारपा बजने वाले के सामने कभी नहीं  करते है धरती संतान कहे जाने वाले इस समुदाय को अपनी परम्परागत संस्कृति पर और रीती रिवाजो पर बहुत नाज़ है । 

और ज़िंदगी की हर छोटी बड़ी खुशियाँ और जश्न मनाने के तरीके भी निराले है चाहे वो विवाह का अवसर हो या किसी बच्चे का जन्म या फिर गृह प्रवेश ।हर अवसर में ये जश्न मानाते है जिनकी छाप हम इनकी वर्ली चित्रकला में देख सकते है  

वर्ली चित्रकला के विषय

1. मछली पकड़ना 

2. शिकार करना 

3. खेती करते समुदाय के लोग 

4. नृत्य करते वारिल वासी 

5. पालतू जीव जंतु आदि 


वरील जनजाति के कलाकार दो त्रिकोण को आपस मे जोड़कर मानव तथा पशु आकृति बनाते है 
दो त्रिकोण की सहायता से कलाकार मनचाही आकृति रचने की क्षमता रखता है ।इन चित्रो को घर की अन्दरूनी दीवारों पर ही बनाया जाता है ।चित्रांकन के लिए वे केवल सफ़ेद रंगो का ही प्रयोग करते है ।यह रंग चावल के आटे से बनाया जाता है जिसे पक्का करने के लिए उसमे थोड़ी सी गोंद मिला दिया जाता है ।धरातल के लिए वे लाल गेरू रंग का प्रयोग करते है जो धरती का प्रतिक है ।बाँस की डंडी  के एक सिरे को कूटकर तूलिका (Brush) बनाते है 

वर्ली चित्रकला का आधुनिक रूप 

वर्ली चित्रकला जहाँ परंपरागत विषयों और  माध्यम पर आधारित थी आज कलाकारों की एक नई पीढ़ी ने वर्ली कला को एक नया अनोखा स्वरुप दे दिया है ।वर्तमान आधुनिक वर्ली चित्रकला में बस ,कार ,कई मंज़िला इमारते और हवाईजहाज जैसी आकृतियों का समावेश देखने को मिलता है ।वर्ली चित्रकला हमेशा से वर्ली जनजाति के व्यवहारिक पहलुओं  विषय रहा है और अब जब दुनिया सिमट रही है शहरी विकास तथा आधुनिकीकरण वर्ली समाज की बदलती ज़िन्दगी का हिस्सा बन रहे हैं तो नए दौर में वर्ली चित्रकला में भी इन सब आक्तितियो को देखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।आज के आधुनिक समाज में कई ऐसे चित्रकार उभर कर आएं है जो इस कला को नया आयाम दे रहें है 



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